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फ़रहत अब्बास के शेर

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दोनों लाज़िम हैं ला-ज़वाल भी हैं

इक तिरा हुस्न इक मिरा ये इश्क़

तेरे साँचे में ढल गया आख़िर

शहर सारा बदल गया आख़िर

हर तरफ़ दोस्ती का मेला है

फिर भी हर आदमी अकेला है

हार जाएगी ज़िंदगी लेकिन

हारने का नहीं मिरा ये इश्क़

जिसे भी दोस्त बनाया वो बन गया दुश्मन

ये हम ने कौन सी तक़्सीर की सज़ा पाई

किस सादगी से वो भी दग़ा दे गया मुझे

जिस शख़्स ने कहा था कभी देवता मुझे

'फ़रहत' सुनाऊँ किस को कहानी मैं गाँव की

घर घर में ज़िंदा लाशें थीं मजबूर माओं की

मेरे हर एक सच पे उन्हें झूट का गुमाँ

करता है बद-गुमान ख़ुदा ख़ैर ही करे

मैं अक़ीदत में ना'त लिखता हूँ

मैं हक़ीक़त में ना'त लिखता हूँ

शहर का शहर मिरी जाँ की तलब रखता है

आज सोचा है यही जान का सदक़ा दे दूँ

इक दूसरे से ख़ौफ़ की शिद्दत थी इस क़दर

कल रात अपने-आप से मैं ख़ुद लिपट गया

फैले हैं सारे शहर में क़िस्से अजीब से

गुज़रा है जब भी फूल सा चेहरा क़रीब से

वो मेरे बख़्त की तहरीर क्यूँ नहीं बनता

वो मेरा ख़्वाब है ता'बीर क्यूँ नहीं बनता

चेहरे बदल बदल के कहानी सुना गए

दर्द-ओ-अलम फ़िराक़ मिरी जाँ को गए

ये काएनात आज भी मंसूब आप से

ये काएनात आज भी जागीर आप की

तुम उसे ले चलो लब-ए-कौसर

फ़रिश्तो ये करबलाई है

ज़लज़लों की नुमूद से 'फ़रहत'

मुस्तक़र मुस्तक़र नहीं रहते

रक़्स करते हुए बगूलों में

मातमी शोर भी हवा का है

ता'मीर कर गए कभी मिस्मार हो गए

लम्हे मिरी उठान को दीवार कर गए

बेताबी-ए-इज़्हार ने यूँ ख़ाक किया है

दुज़दीदा-निगाही ने मुझे चाक किया है

दिन निकलते ही बदन पर हब्स की यूरिश हुई

रात-भर सोचों के पथराव से सर जलता रहा

बात अहल-ए-जुनूँ की क्या समझे

वो ख़िरद जो कड़े ज़ियान में है

लाख अज्ज़ा में हो गया तक़्सीम

क्या अजब मुजतमा' हुआ 'फ़रहत'

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Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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