हसन अकबर कमाल
ग़ज़ल 17
नज़्म 6
अशआर 11
कल यही बच्चे समुंदर को मुक़ाबिल पाएँगे
आज तैराते हैं जो काग़ज़ की नन्ही कश्तियाँ
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वफ़ा परछाईं की अंधी परस्तिश
मोहब्बत नाम है महरूमियों का
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पाया जब से ज़ख़्म किसी को खोने का
सीखा फ़न हम ने बे-आँसू रोने का
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न टूटे और कुछ दिन तुझ से रिश्ता इस तरह मेरा
मुझे बर्बाद कर दे तू मगर आहिस्ता आहिस्ता
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दिए बुझाती रही दिल बुझा सके तो बुझाए
हवा के सामने ये इम्तिहान रखना है
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