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जलील ’आली’ के शेर

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दिल आबाद कहाँ रह पाए उस की याद भुला देने से

कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से

रास्ता सोचते रहने से किधर बनता है

सर में सौदा हो तो दीवार में दर बनता है

दिल पे कुछ और गुज़रती है मगर क्या कीजे

लफ़्ज़ कुछ और ही इज़हार किए जाते हैं

अपने दिए को चाँद बताने के वास्ते

बस्ती का हर चराग़ बुझाना पड़ा हमें

दुनिया तो है दुनिया कि वो दुश्मन है सदा की

सौ बार तिरे इश्क़ में हम ख़ुद से लड़े हैं

आली शेर हो या अफ़्साना या चाहत का ताना बाना

लुत्फ़ अधूरा रह जाता है पूरी बात बता देने से

तो ज़िंदगी को जिएँ क्यूँ ज़िंदगी की तरह

कहीं पे फूल कहीं पर शरर बनाते हुए

क्या क्या दिलों का ख़ौफ़ छुपाना पड़ा हमें

ख़ुद डर गए तो सब को डराना पड़ा हमें

तुम्हारा क्या तुम्हें आसाँ बहुत रस्ते बदलना है

हमें हर एक मौसम क़ाफ़िले के साथ चलना है

रास्ता आगे भी ले जाता नहीं

लौट कर जाना भी मुश्किल हो गया

उसे दिल से भुला देना ज़रूरी हो गया है

ये झगड़ा ही मिटा देना ज़रूरी हो गया है

ज़रा सी बात पर सैद-ए-ग़ुबार-ए-यास होना

हमें बर्बाद कर देगा बहुत हस्सास होना

प्यार वो पेड़ है सौ बार उखाड़ो दिल से

फिर भी सीने में कोई दाब सलामत रह जाए

ये शहर-ए-तिलिस्मात है कुछ कह नहीं सकते

पहलू में खड़ा शख़्स फ़रिश्ता कि बला है

वक़्त देता है जो पहचान तो ये देखता है

किस ने किस दर्द में दिल की ख़ुशी रक्खी हुई है

इश्क़ ख़ुद सिखाता है सारी हिकमतें 'आली'

नक़्द-ए-दिल किसे देना बार-ए-सर कहाँ रखना

ग़ुरूर-ए-इश्क़ में इक इंकिसार-ए-फ़क़्र भी है

ख़मीदा-सर हैं वफ़ा को अलम बनाते हुए

जाँ खपाते हैं ग़म-ए-इश्क़ में ख़ुश ख़ुश 'आली'

कैसी लज़्ज़त का ये आज़ार बनाया हुआ है

हम कि हैं नक़्श सर-ए-रेग-ए-रवाँ क्या जाने

कब कोई मौज-ए-हवा अपना निशाँ ले जाए

बर्ग भर बार मोहब्बत का उठाया कब था

तुम ने सीने में कोई दर्द बसाया कब था

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