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कैफ़ी हैदराबादी

1880 - 1920

कैफ़ी हैदराबादी के शेर

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सुब्ह को खुल जाएगा दोनों में क्या याराना है

शम्अ परवाना की है या शम्अ का परवाना है

मोहब्बत में क्या क्या कुछ जौर होगा

अभी क्या हुआ है अभी और होगा

हम आप को देखते थे पहले

अब आप की राह देखते हैं

वो अब क्या ख़ाक आए हाए क़िस्मत में तरसना था

तुझे अब्र-ए-रहमत आज ही इतना बरसना था

वही नज़र में है लेकिन नज़र नहीं आता

समझ रहा हूँ समझ में मगर नहीं आता

अपना ख़त आप दिया उन को मगर ये कह कर

ख़त तो पहचानिए ये ख़त मुझे गुमनाम मिला

रक़ीब दोनों जहाँ में ज़लील क्यूँ होता

किसी के बीच में कम-बख़्त अगर नहीं आता

दिल लेने के अंदाज़ भी कुछ सीख गया हूँ

सोहबत में हसीनों की बहुत रोज़ रहा हूँ

और भी तो हैं ज़माने में तुम्हारे आशिक़

एक मैं ही तुम्हें क्या क़ाबिल-ए-इल्ज़ाम मिला

ख़म सुबू साग़र सुराही जाम पैमाना मिरा

मेरे साक़ी जब मिरा तू है तो मय-ख़ाना मिरा

हर तौर हर तरह की जो ज़िल्लत मुझी को है

दुनिया में क्या किसी से मोहब्बत मुझी को है

मज़ा है तिरे बिस्मिलों को तड़प में

तड़प में नहीं बिस्मिलों में मज़ा है

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