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ख़ुर्शीद रिज़वी

1942 | पाकिस्तान

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ख़ुर्शीद रिज़वी के शेर

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आख़िर को हँस पड़ेंगे किसी एक बात पर

रोना तमाम उम्र का बे-कार जाएगा

तमाम उम्र अकेले में तुझ से बातें कीं

तमाम उम्र तिरे रू-ब-रू ख़मोश रहे

'ख़ुर्शीद' अब कहाँ है किसी को पता नहीं

गुज़रा तो था किसी का पता पूछता हुआ

दो हर्फ़ तसल्ली के जिस ने भी कहे उस को

अफ़्साना सुना डाला तस्वीर दिखा डाली

जो तमाम उम्र रहा सबब की तलाश में

वो तिरी निगाह में बे-सबब नहीं सका

या शिकन-आलूद हो जाएगी मंज़र की जबीं

या हमारी आँख के शीशे में बाल जाएगा

बहुत से रोग दुआ माँगने से जाते हैं

ये बात ख़ूगर-ए-रस्म-ए-दवा से कौन कहे

आसाँ तो नहीं अपनी हस्ती से गुज़र जाना

उतरा जो समुंदर में दरिया तो बहुत रोया

जो शख़्स रोया था तपती हुई राहों में

दीवार के साए में बैठा तो बहुत रोया

हम तेरी तबीअत को 'ख़ुर्शीद' नहीं समझे

पत्थर नज़र आता था रोया तो बहुत रोया

इस ए'तिराफ़ से रस घुल रहा है कानों में

वो ए'तिराफ़ जो उस ने अभी किया भी नहीं

मिरे इस अव्वलीं अश्क-ए-मोहब्बत पर नज़र कर

ये मोती सीप में फिर उम्र-भर आता नहीं है

पलट कर अश्क सू-ए-चशम-ए-तर आता नहीं है

ये वो भटका मुसाफ़िर है जो घर आता नहीं है

अब से पहले वो मिरी ज़ात पे तारी तो था

दिल में रहता था मगर ख़ून में जारी तो था

हम कि अपनी राह का पत्थर समझते हैं उसे

हम से जाने किस लिए दुनिया ठुकराई गई

अक्स ने मेरे रुलाया है मुझे

कोई अपना नज़र आया है मुझे

मौत की एक अलामत है अगर देखा जाए

रूह का चार अनासिर पे सवारी करना

मुझे भी अपना दिल-ए-रफ़्ता याद आता है

कभी कभी किसी बाज़ार से गुज़रते हुए

बिखर गया तो मुझे कोई ग़म नहीं इस का

कि राज़ मुझ पे कई वा हुए बिखरते हुए

मक़ाम जिन का मुअर्रिख़ के हाफ़िज़े में नहीं

शिकस्त फ़तह के मा-बैन मरहले हम लोग

हैं मिरी राह का पत्थर मिरी आँखों का हिजाब

ज़ख़्म बाहर के जो अंदर नहीं जाने देते

जिस्म की चौखट पे ख़म दिल की जबीं कर दी गई

आसमाँ की चीज़ क्यूँ सर्फ़-ए-ज़मीं कर दी गई

तू मुझे बनते बिगड़ते हुए अब ग़ौर से देख

वक़्त कल चाक पे रहने दे रहने दे मुझे

नुस्ख़ा-ए-मरहम-ए-इक्सीर बताने वाले

तू मिरा ज़ख़्म तो पहले मुझे वापस कर दे

ये दौर वो है कि बैठे रहो चराग़-तले

सभी को बज़्म में देखो मगर दिखाई दो

तुम्हारी बज़्म से तन्हा नहीं उठा 'ख़ुर्शीद'

हुजूम-ए-दर्द का इक क़ाफ़िला रिकाब में था

बस दरीचे से लगे बैठे रहे अहल-ए-सफ़र

सब्ज़ा जलता रहा और याद-ए-वतन आती रही

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