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Latif Shah Shahid's Photo'

लतीफ़ शाह शाहिद

1968 | नौशेरा, पाकिस्तान

लतीफ़ शाह शाहिद के शेर

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गर्दिश-ए-अय्याम से चलती है नब्ज़-ए-काएनात

वक़्त का पहिया रुका तो ज़िंदगी रुक जाएगी

ख़ुद अपने आप से रहता है आदमी नाराज़

उदासियों के भी अपने मिज़ाज होते हैं

ताज़ा हवा ख़रीदने आते हैं गाँव में

'शाहिद' शहर के लोग भी कैसे अजीब हैं

मुझ से तो कोई ताज-महल भी बन सका

बे-नाम दिल की क़ब्र में दफ़ना दिया तुझे

ये और बात कि तू दो क़दम पे भूल गया

हमें तो हश्र तलक तेरा इंतिज़ार रहा

ग़म को एहसास की मिट्टी में ख़ुदा ने गूँधा

और कुछ अश्क मिलाए तो फिर इंसान किया

दूसरों की बात आई तो पयम्बर था वो शख़्स

अपनी बारी पर मोहब्बत से ही मुर्तद हो गया

वो मुझ से प्यार कब करता है बस मिलता मिलाता है

किराए के मकाँ में कब कोई पौदा लगाता है

मिरी आँखों में कीलें ठोंक दो होंटों को सिलवा दो

बसीरत जुर्म है मेरा सदाक़त मेरी आदत है

रेल की पटरी फ़सुर्दा शाम तेरा सूटकेस

फिर से आँखों में तिरे जाने का मंज़र गया

पढ़ता है बड़े शौक़ से वो मेरी किताबें

जिस बात से डरता हूँ वही बात पढ़ ले

मुझे ख़ामोशियाँ पढ़ने का फ़न आता तो पढ़ लेता

तुम्हारी झील सी ख़ामोश आँखों की पशेमानी

छिड़का गया है ज़हर फ़ज़ाओं में इस तरह

माओं ने अपनी कोख से बूढे जनम दिए

बाँध के अहद-ए-वफ़ा लोग चले जाते हैं

छोड़ जाते हैं फ़क़त जिस्म की उलझी गाँठें

अब के उम्मीद-ए-वफ़ा बाँध रहा हूँ जिस से

लोग कहते हैं कि वो शख़्स भी हरजाई है

मोहब्बत रूप में ढलती तो वो इक देवता होता

मैं उस को पूजने लगता अगर वो बा-वफ़ा होता

जाने हैं किस हसीन त'अल्लुक़ की यादगार

मुझ को बहुत अज़ीज़ हैं मेरी ये वहशतें

इश्तियाक़-ए-रक़्स में हद से निकलते जा रहे

दाएरे को खींच कर औक़ात में लाना पड़ा

मिरे विज्दाँ की गिर्हें खोलता है

मिरा हम-ज़ाद मुझ में बोलता है

वो शख़्स बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में

मैं सुन रहा था मगर मैं कलीम-ए-वक़्त था

मुझ से लिपटा है अमरबेल के मानिंद कोई

मुझ को बे-बर्ग करता तो समर देता क्या

तकल्लुम हम से करता है तो यूँ जैसे शहंशह को

मोहब्बत का कोई नुस्ख़ा क़लंदर पेश करता है

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