लोकेश त्रिपाठी के शेर
कमाने और गँवाने में बचा पाया हूँ बस इतना
हमारे घर पुराने दोस्त देखो अब भी आते हैं
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वो ज़िद करती है लेकिन फिर अचानक मान जाती है
मिरे चेहरे की रंगत से वो क़ीमत जान जाती है
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ये शाम ढल रही थी कि आई ख़बर बुरी
पानी के इंतिज़ार में इक झील मर गई
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हम से हमारे ख़्वाब भी जब दूर हो गए
मजबूर तब हुए यूँ कि मज़दूर हो गए
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हम सभी आकाश में लटके हुए
सोचते हैं कि ज़मीं पे पाँव है
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मिरा ही मन नहीं लगता है उस में
कि उस का मन भी मुझ से भर गया है
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मर गई माँ तो बट गए ज़ेवर
बट गया घर पिता के मरते ही
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सिर्फ़ शा'इर ही रहता है ज़िंदा
आदमी को तो मर ही जाना है
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चीज़ कोई नहीं दूसरी चाहिए
बात जिस की हुई थी वही चाहिए
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रहा था मल मिरे चेहरे पे कालिख
वो शीशा साफ़ थोड़ी कर रहा था
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