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महेंद्र कुमार सानी

1984 | पंचकुला, भारत

नई नस्ल के सबसे प्रमुख शायरों में शामिल/उभरते हुए आलोचक

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महेंद्र कुमार सानी के शेर

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मैं तन्हाई को अपना हम-सफ़र क्या मान बैठा

मुझे लगता है मेरे साथ दुनिया चल रही है

रात दिन गर्दिश में हैं लेकिन पड़ा रहता हूँ मैं

काम क्या मेरा यहाँ है सोचता रहता हूँ मैं

मैं चाहता हूँ कि तेरी तरफ़ देखूँ मैं

मिरी नज़र को मगर तू ने बाँध रक्खा है

तुझे रौशनी से जुदा करूँ किसी शाम मैं

तुझे इतनी ताब में देखना नहीं हो रहा

यक़ीनन सोचता होगा वो मुझ को

उसे मैं ने अभी सोचा नहीं है

मैं अपनी यात्रा पर जा रहा हूँ

मुझे अब लौट कर आना नहीं है

तिरा वजूद तिरे रास्ते में हाइल है

यहीं से हो के मिरा क़ाफ़िला गुज़रता है

हो रहा हूँ तिरे दुख में तहलील

अपने हर दर्द से कटता जाऊँ

उसे मैं दूर ही से देखता रहा 'सानी'

जो आज पानी में उतरा हूँ तो खुला दरिया

रौशनी में लफ़्ज़ के तहलील हो जाने से क़ब्ल

इक ख़ला पड़ता है जिस में घूमता रहता हूँ मैं

मैं दिन को शब से भला क्यूँ अलग करूँ सानी

ये तीरगी भी तो इक रौशनी का हिस्सा है

जाने कैसी रौशनी थी कर गई अंधा मुझे

इस भयानक तीरगी में भी बुझा रहता हूँ मैं

कहाँ आप को भी गवारा था मैं

नहीं जिस घड़ी तक तुम्हारा था मैं

दीवार दर ने रंगों से दामन छुड़ा लिया

यक-रंगी-ए-सुकूत से क्यूँ घर निढ़ाल है

इसी दुनिया में है वो दूसरी दुनिया 'सानी'

लोग जिस के लिए जंगल की तरफ़ जाते हैं

दरख़्त-ए-ज़र्द में जैसे हरा सा रहता है

वो ठीक उसी तरह मुझी में भरा सा रहता है

दीवार-ए-ख़्वाब में कोई दर कर नहीं सके

हम लोग शब से आगे सफ़र कर नहीं सके

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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