मंसूर ख़ुशतर
ग़ज़ल 14
अशआर 7
तवज्जोह आप फ़रमाएँ अगर तो
कुछ हम भी अर्ज़ करना चाहते हैं
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यक़ीं कर कि मैं तुझ से भी ज़ियादा चाहता उस को
जो मेरे जैसा तेरा और कोई क़द्र-दाँ होता
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तिरे जौर-ओ-जफ़ा का हम कभी शिकवा नहीं करते
मोहब्बत जिस से करते हैं उसे रुस्वा नहीं करते
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था जो इक काफ़िर मुसलमाँ हो गया
पल में वीराना गुलिस्ताँ हो गया
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नाज़-ओ-अंदाज़ की क़ीमत है तिरे मेरे सबब
किस की महफ़िल में भला और ग़ज़ब ढाओगे
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