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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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Mohammad Alvi's Photo'

मोहम्मद अल्वी

1927 - 2018 | अहमदाबाद, भारत

प्रमुखतम आधुनिक शायरों में विख्यात/साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

प्रमुखतम आधुनिक शायरों में विख्यात/साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

मोहम्मद अल्वी के शेर

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नया साल दीवार पर टाँग दे

पुराने बरस का कैलेंडर गिरा

अब 'ग़ालिब' से शिकायत है शिकवा 'मीर' का

बन गया मैं भी निशाना रेख़्ता के तीर का

दिन भर बच्चों ने मिल कर पत्थर फेंके फल तोड़े

साँझ हुई तो पंछी मिल कर रोने लगे दरख़्तों पर

कमरे में मज़े की रौशनी हो

अच्छी सी कोई किताब देखूँ

रात पड़े घर जाना है

सुब्ह तलक मर जाना है

लड़की अच्छी है 'अल्वी'

नाम उस का मर जाना है

उस से मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी

दिल से दुआ निकलती है ख़ुश हो जहाँ भी हो

रोज़ अच्छे नहीं लगते आँसू

ख़ास मौक़ों पे मज़ा देते हैं

हाए वो लोग जो देखे भी नहीं

याद आएँ तो रुला देते हैं

आग अपने ही लगा सकते हैं

ग़ैर तो सिर्फ़ हवा देते हैं

बस के नीचे कोई नहीं आता फिर भी

बस में बैठ के बेहद घबराता हूँ मैं

ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं

टेबल पर सर रख कर सो जाता हूँ मैं

गाड़ी आती है लेकिन आती ही नहीं

रेल की पटरी देख के थक जाता हूँ मैं

मरने के डर से और कहाँ तक जियेगा तू

जीने के दिन तमाम हुए इंतिक़ाल कर

देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था

ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर

इक याद रह गई है मगर वो भी कम नहीं

इक दर्द रह गया है सो रखना सँभाल कर

लम्बी सड़क पे दूर तलक कोई भी था

पलकें झपक रहा था दरीचा खुला हुआ

दिन ढल रहा था जब उसे दफ़ना के आए थे

सूरज भी था मलूल ज़मीं पर झुका हुआ

माना कि तू ज़हीन भी है ख़ूब-रू भी है

तुझ सा मैं हुआ तो भला क्या बुरा हुआ

नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें

साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ

ग़म बहुत दिन मुफ़्त की खाता रहा

अब उसे दिल से निकाला चाहिए

मैं उस के बदन की मुक़द्दस किताब

निहायत अक़ीदत से पढ़ता रहा

अँधेरी रातों में देख लेना

दिखाई देगी बदन की ख़ुश्बू

यार आज मैं ने भी इक कमाल करना है

जिस्म से निकलना है जी बहाल करना है

इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ

जैसे किसी को भी अब उस की ज़रूरत थी

दरवाज़े पर पहरा देने

तन्हाई का भूत खड़ा है

घर में क्या आया कि मुझ को

दीवारों ने घेर लिया है

मैं नाहक़ दिन काट रहा हूँ

कौन यहाँ सौ साल जिया है

सुब्ह से खोद रहा हूँ घर को

ख़्वाब देखा है ख़ज़ाने वाला

मुतमइन है वो बना कर दुनिया

कौन होता हूँ मैं ढाने वाला

रात-भर सोचा किए और सुब्ह-दम अख़बार में

अपने हाथों अपने मरने की ख़बर देखा किए

गली में कोई घर अच्छा नहीं था

मगर कुछ खिड़कियाँ अच्छी लगी हैं

नहा कर भीगे बालों को सुखाती

छतों पर लड़कियाँ अच्छी लगी हैं

बिछड़ते वक़्त ऐसा भी हुआ है

किसी की सिसकियाँ अच्छी लगी हैं

अच्छे दिन कब आएँगे

क्या यूँ ही मर जाएँगे

मौत आई तो 'अल्वी'

छुट्टी में घर जाएँगे

अब तो चुप-चाप शाम आती है

पहले चिड़ियों के शोर होते थे

ये कहाँ दोस्तों में बैठे

हम तो मरने को घर से निकले थे

मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे

पहले बच्चे भी कितने बूढ़े थे

उसे मैं ने भी कल देखा था 'अल्वी'

नए कपड़े पहन के जा रहा था

किसी से कोई तअल्लुक़ रहा हो जैसे

कुछ इस तरह से गुज़रते हुए ज़माने थे

परिंदे दूर फ़ज़ाओं में खो गए 'अल्वी'

उजाड़ उजाड़ दरख़्तों पे आशियाने थे

कभी तो ऐसा भी हो राह भूल जाऊँ मैं

निकल के घर से फिर अपने घर में आऊँ मैं

ग़ज़ल कही है कोई भाँग तो नहीं पी है

मुशाइरे में तरन्नुम से क्यूँ सुनाऊँ मैं

बिखेर दे मुझे चारों तरफ़ ख़लाओं में

कुछ इस तरह से अलग कर कि जुड़ पाऊँ मैं

गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही की

वो मर गया तो उसे अब कहाँ से लाऊँ मैं

बहुत ख़ुश हुए आईना देख कर

यहाँ कोई सानी हमारा था

सामने दीवार पर कुछ दाग़ थे

ग़ौर से देखा तो चेहरे हो गए

अब किसी की याद भी आती नहीं

दिल पे अब फ़िक्रों के पहरे हो गए

सब नमाज़ें बाँध कर ले जाऊँगा मैं अपने साथ

और मस्जिद के लिए गूँगी अज़ाँ रख जाऊँगा

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