मुबारक शमीम के शेर
क्या ख़बर कब क़ैद-ए-बाम-ओ-दर से उक्ता जाए दिल
बस्तियों के दरमियाँ सहरा भी होना चाहिए
उस को धुँदला न सकेगा कभी लम्हों का ग़ुबार
मेरी हस्ती का वरक़ यूँही खुला रहने दे
जो साया-दार शजर थे वो सर्फ़-ए-दार हुए
दिखाई देते नहीं दूर दूर तक साए
मुद्दत गुज़री डूब चुका हूँ दर्द की प्यासी लहरों में
ज़िंदा हूँ ये कोई न जाने साँस के आने जाने से
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बोल किस मोड़ पे हूँ कश्मकश-ए-मर्ग-ओ-हयात
ऐसे आलम में कहाँ छोड़ दिया है मुझ को
क्या तमाशा है कि अब हर शख़्स को ये वहम है
सब से मैं ऊँचा हूँ मुझ से कोई भी ऊँचा नहीं
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हर इक पत्थर को हीरा क्यों समझ लें
हर इक पत्थर अगरचे दीदनी है
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हुआ क्या ऐ नसीम-ए-सुब्ह-गाही
जो मुरझाया हुआ दिल का कँवल है
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नज़र आती नहीं हैं कम-नज़र को
सराबों के जिगर में नद्दियाँ हैं
दीदा-ए-बेनूर इक आलम है क्या ये झूट है
हर तरफ़ फैला हुआ है तीरगी का सिलसिला
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टैग : दुनिया
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तुम्हारी याद के साए भी कुछ सिमट से गए
ग़मों की धूप तो बाहर थी अक्स अंदर था
जी यही कहता है अब चल के वहीं जा ठहरो
हम ने वीरानों में देखे हैं वो आसार कि बस
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टैग : वीरानी
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