नरजिस अफ़रोज़ ज़ैदी के शेर
सुना है फूल झड़े थे जहाँ तिरे लब से
वहाँ बहार उतरती है रोज़ शाम के साथ
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तिरे ख़याल से रौशन है सर-ज़मीन-ए-सुख़न
कि जैसे ज़ीनत-ए-शब हो मह-ए-तमाम के साथ
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