रिफ़अत सुलतान
ग़ज़ल 16
अशआर 8
अब इस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को
कि चाहता हूँ तुझे भी भुला दिया जाए
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जलता रहा हूँ ज़ीस्त के दोज़ख़ में उम्र भर
ये और बात है मिरी कोई ख़ता नहीं
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जी रहा हूँ कुछ इस तरह जैसे
आग लग जाए और हो न धुआँ
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तू मिरी बात का जवाब न दे
मैं समझता हूँ ख़ामुशी की ज़बाँ
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मुझे भी यूँ तो बड़ी आरज़ू है जीने की
मगर सवाल ये है किस तरह जिया जाए
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