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Sharib Mauranwi's Photo'

शारिब मौरान्वी

1963 | बाराबंकी, भारत

शारिब मौरान्वी के शेर

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किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द

कहीं पे शाम-ए-ग़रीबाँ कहीं दिवाली है

पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली

सो गया मज़दूर तन पर बोरिया ओढ़े हुए

सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर

ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे

हम ऐसे दश्त का तालाब हैं जहाँ पानी

कोई भी शेर हो गर्दन झुका के पीता है

क़फ़स के बंद परिंदे हैं जिन की आँखों में

असीरी घूमती रहती है क़ैद-ख़ानों की

सब एक जैसी हैं दुनिया की ‘औरतें लेकिन

तुम्हारे डसने का अंदाज़ मुख़्तलिफ़ ठहरा

शजर पे बैठे परिंदों का शोर काटता है

दरख़्त को मिरे घर से उखाड़ दे कोई

कभी मिलो तो दिखाऊँ उदासियों का सफ़र

जिन्हें मैं रूह की गहराइयों में रखता हूँ

उस ने होंटों पे लब रखे भी थे

मुझ में सूरज तुलूअ' होने लगा

पूरी दुनिया मुझे फ़नकार समझती है तो क्या

मेरे घर वाले तो नाकारा समझते हैं मुझे

तुम्हें भी एक दिन मैं ढूँढता हुआ आता

मगर ये रूह किसी और के हिसार में है

रुख़ पे जाता है जिस रोज़ तमन्ना का बुख़ार

रात हो जाती है चेहरा मुझे धोते धोते

आज मैं आईना देखूँगा

इस में सीरत दिखाई देती है

सियाह शब में चराग़ों से दोस्ती करना

हमें पसंद नहीं घर में दुश्मनी करना

मिरी आँखें यहाँ तन्हा पड़ी हैं

तो उस का कौन पीछा कर रहा है

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