सय्यद ज़मीर जाफ़री के शेर
हम ने कितने धोके में सब जीवन की बर्बादी की
गाल पे इक तिल देख के उन के सारे जिस्म से शादी की
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बहन की इल्तिजा माँ की मोहब्बत साथ चलती है
वफ़ा-ए-दोस्ताँ बहर-ए-मशक़्कत साथ चलती है
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अब इक रूमाल मेरे साथ का है
जो मेरी वालिदा के हाथ का है
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एक लम्हा भी मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीक़ा ही कहाँ रखते हैं
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हँस मगर हँसने से पहले सोच ले
ये न हो फिर उम्र भर रोना पड़े
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उन का दरवाज़ा था मुझ से भी सिवा मुश्ताक़-ए-दीद
मैं ने बाहर खोलना चाहा तो वो अंदर खुला
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दर्द में लज़्ज़त बहुत अश्कों में रानाई बहुत
ऐ ग़म-ए-हस्ती हमें दुनिया पसंद आई बहुत
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ज़ाहिद ख़ुदी-फ़रोश तो वाइ'ज़ ख़ुदा-फ़रोश
दोनों बुज़ुर्ग मेरी नज़र से गुज़र गए
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जितना बढ़ता गया शुऊ'र-ए-हुनर
ख़ुद को उतना ही बे-हुनर जाना
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मैं ने हर फ़ाइल की दुमची पर ये मिसरा' लिख दिया
काम हो सकता नहीं सरकार मैं रोज़े से हूँ
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बुआ को तो देखो न गहना न पाता
बजट हाथ में जैसे धोबिन का खाता
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जैसे सच कुछ भी नहीं जैसे ख़ुदा कोई नहीं
किस क़दर उम्मीदें वाबस्ता हैं अंकल-साम से
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इधर कोने में जो इक मज्लिस-ए-बेदार बैठी है
किराए पर इलेक्शन के लिए तय्यार बैठी है
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ग़म-ए-दौराँ से अब तो ये भी नौबत आ गई, अक्सर
किसी मुर्ग़ी से टकराई तो ख़ुद चकरा गई, अक्सर
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टैग : तंज़-ओ-मिज़ाह
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कभी वक़्त-ए-ख़िराम आया तो टायर का सलाम आया
''थम ऐ रह रौ कि शायद फिर कोई मुश्किल मक़ाम आया''
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टैग : तंज़-ओ-मिज़ाह
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यूँ तो हर चीज़ है यहाँ ख़ालिस
लेकिन औलाद में मिलावट है
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दीन तो बचता नज़र आता नहीं न्यूयॉर्क में
ज़ुल्फ़ ही अपनी बचा ले जाइए हज्जाम से
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उस ने की पहले-पहल पैमाइश-ए-सहरा-ए-नज्द
क़ैस है दर-अस्ल इक मशहूर पनवाड़ी का नाम
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