तंज़-ओ-मिज़ाह पर शेर
तंज़-ओ-मिज़ाह की शायरी
बयक-वक़्त कई डाईमेंशन रखती है, इस में हंसने हंसाने और ज़िंदगी की तलख़ियों को क़हक़हे में उड़ाने की सकत भी होती है और मिज़ाह के पहलू में ज़िंदगी की ना-हमवारियों और इंसानों के ग़लत रवय्यों पर तंज और मिज़ाह के पैराए में एक तख़लीक़-कार वो सब कह जाता है जिस के इज़हार की आम ज़िंदगी में तवक़्क़ो भी नहीं की जा सकती। ये शायरी पढ़िए और ज़िंदगी के उन दिल-चस्प इलाक़ों की सैर कीजिए।
कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया
जो चाहता है कि बन जाए वो बड़ा शायर
वो जा के दोस्ती गाँठे किसी मुदीर के साथ
कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे
मगर उन का कहा या आप समझें या ख़ुदा समझे
पहले हम को बहन कहा अब फ़िक्र हमीं से शादी की
ये भी न सोचा बहन से शादी कर के क्या कहलाएँगे
ख़ुद तीस का है और दुल्हन साठ बरस की
गिरती हुई दीवार के साए में खड़ा है
वहाँ जो लोग अनाड़ी हैं वक़्त काटते हैं
यहाँ भी कुछ मुतशायर दिमाग़ चाटते हैं
आ के बज़्म-ए-शेर में शर्त-ए-वफ़ा पूरी तो कर
जितना खाना खा गया है उतनी मज़दूरी तो कर
अपने उस्ताद के शे'रों का तिया पाँचा किया
ऐ रहीम आप के फ़न में ये कमाल अच्छा है
मैं ने हर फ़ाइल की दुमची पर ये मिसरा' लिख दिया
काम हो सकता नहीं सरकार मैं रोज़े से हूँ
बुआ को तो देखो न गहना न पाता
बजट हाथ में जैसे धोबिन का खाता
ये रिश्वत के हैं पैसे दिन में कैसे लूँ मुसलमाँ हूँ
मैं ले सकता नहीं सर अपने ये इल्ज़ाम रोज़े में
आई सदा-ए-हक़ कि यही बंद-ओ-बस्त हैं
तेरे वतन के लोग तो मुर्दा-परस्त हैं
सियासत-दाँ जो तब्ई मौत मरते
तो साज़िश की ज़रूरत ही न होती
इल्म हासिल कर के भी मिलती नहीं है नौकरी
रहम के क़ाबिल है बस हालत हमारी इन दिनों
नहीं है बह्र में बे-वज़्न है 'रहीम' मगर
हमारी शाइ'री सुर में है और ताल में है
चेहरे तो झुर्रियों से भरे दिल जवान हैं
दिन में हैं शैख़ रात में सलमान-ख़ान हैं
दिया है नाम कफ़न-चोर जब से तुम ने मुझे
पुरानी क़ब्रों के मुर्दे मिरी तलाश में हैं
औलाद की कसरत पे है सौ सौ यहाँ क़दग़न
मैं सौ से ज़ियादा तो बहर-तौर करूँगा
कहीं गोली लिखा है और कहीं मार
ये गोलीमार लिक्खा जा रहा है
मुमकिन है कि हो जाए नशा इस से ज़रा सा
फिर आप का चालान भी हो सकता है इस से
परेशानी से सर के बाल तक सब झड़ गए लेकिन
पुरानी जेब में कंघी जो पहले थी सो अब भी है
पायान-ए-कार ख़त्म हुआ जब ये तज्ज़िया
मैं ने कहा हुज़ूर तो बोले कि शुक्रिया
'अनवर' ख़ुदा करे कि ये सच्ची न हो ख़बर
इक्कीसवीं सदी में वडेरे भी जाएँगे
अपनी शोहरत की अलग राह निकाली हम ने
किसी दीवाँ से ग़ज़ल कोई चुरा ली हम ने
कुल्लियात-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब' से ग़ज़ल लाया था मैं
आज वो भी छप न पाई आप के अख़बार में!
कफ़न की क़ीमत सुनेंगे मुर्दे तो इस के सदमे से जी उठेंगे
जनाज़ा उट्ठेगा अब किसी का न अब किसी का मज़ार होगा
उड़ा लेती हैं सब नक़दी तलाशी जेब की ले कर
हम अपनी ही कमाई उन से डर डर के छुपाते हैं
इलेक्शन फिर वो ज़िल-हिज्ज के महीने में कराएँगे
तो क्या दो दाँत के वोटर की फिर क़ुर्बानियाँ होंगी
नर्स को देख के आ जाती है मुँह पे रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
कहते थे मैच देखने वाले पुकार के
उस्ताद जा रहे हैं शब-ए-ग़म गुज़ार के
दुर्गत बने है चाय में बिस्कुट की जिस तरह
शादी के बा'द लोगो वही मेरा हाल है
हम मानते हैं आप बड़े ग़म-गुसार हैं
लेकिन ये आस्तीन में क्या है दिखाइए
सुना ये है कि वो सूफ़ी भी था वली भी था
अब इस के बा'द तो पैग़म्बरी का दर्जा है
सियाह ज़ुल्फ़ को जो बन-सँवर के देखते हैं
सफ़ेद बाल कहाँ अपने सर के देखते हैं
हमारा दोस्त तुफ़ैली भी है बड़ा शाएर
अगरचे एक बड़े आदमी का चमचा है
कर लीजे 'रज़िया' से मोहब्बत हम पर कीजे नज़र-ए-करम
वो बे-चारी फँस जाएगी हम उस को समझाएँगे
एक शादी तो ठीक है लेकिन
एक दो तीन चार हद कर दी
दस बच्चों के अब्बा हैं मगर है यही ख़्वाहिश
हर वक़्त ही बैठी रहे लैला मिरे आगे
बुरी बुरी नज़रें चेहरे पर डाल रहे हैं उफ़ तौबा
हम अपने दोनों गालों को जा के अभी धो आएँगे
मर्तबे में 'मीर' ओ 'मोमिन' से है हर कोई बुलंद
इन में हर बे-बहर ग़ालिब से बड़ा फ़नकार है
बस में बैठी है मिरे पास जो इक ज़ोहरा-जबीं
मर्द निकलेगी अगर ज़ुल्फ़ मुँडा दी जाए
है अजब निज़ाम ज़कात का मिरे मुल्क में मिरे देस में
इसे काटता कोई और है इसे बाँटता कोई और है
कहने लगे वो 'अनवर'-साहिब आप भी कितने भोले हैं
मेरे पास उठा लाए हैं केस ज़नाने थाने का
मेहंदी लगे वो हाथ वो मीना सी उँगलियाँ
हम को तबाह कर गईं दिल्ली की लड़कियाँ
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
घोड़ों की तरह बिकते हैं इंसान वग़ैरा
जहाँ से तोहफ़तन भेजी गई थी ईद के दिन से
वहीं फिरती-फिराती आ गई है रान बकरे की
वस्ल की रात जो महबूब कहे गुड नाईट
क़ाएदा ये है कि इंग्लिश में दुआ दी जाए