तंज़ पर शेर
तंज़ के साथ उमूमन मिज़ाह
का लफ़्ज़ जुड़ा होता है क्यूँ कि गहरा तंज़ तभी क़ाबिल-ए-बर्दाश्त और एक मानी में इस्लाही होता है जब उस का इज़हार इस तौर पर किया जाए कि उस के साथ मिज़ाह का उन्सिर भी शामिल हो। तंज़िया पैराए में एक तख़्लीक़-कार अपने आस पास की दुनिया और समाज की ना-हमवारियों को निशाना बनाता है और ऐसे पहलुओं को बे-नक़ाब करता है जिन पर आम ज़िंदगी में नज़र नहीं जाती और जाती भी है तो उन पर बात करने का हौसला नहीं होता।
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए
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हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं
दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है
व्याख्या
इस शे’र में शायर ने ख़ुदा से मज़ाक़ किया है जो उर्दू ग़ज़ल की परंपरा रही है। शायर अल्लाह पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि तुम्हारे बंदों ने तुम्हारी इबादत करना छोड़ दी है जिसकी वजह से मस्जिद वीरान हो गई है। चूँकि तुमने मेरी क़िस्मत में ख़ाना-ख़राबी लिखी थी तो अब तुम्हारा उजड़ा हुआ घर देखकर मेरा दिल ख़ुश हुआ है।
शफ़क़ सुपुरी
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है
बात तक करनी न आती थी तुम्हें
ये हमारे सामने की बात है
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में
रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो
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मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार न हो
सुनेगा कौन मेरी चाक-दामानी का अफ़्साना
यहाँ सब अपने अपने पैरहन की बात करते हैं
लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं
सब तो जेनरेल हैं यहाँ आख़िर सिपाही कौन है
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें
हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर
सुना ये है बना करते हैं जोड़े आसमानों पर
तो ये समझें कि हर बीवी बला-ए-आसमानी है
आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम
हम तो ए.बी में रहे अग़्यार बी.ए हो गए
उठते हुओं को सब ने सहारा दिया 'कलीम'
गिरते हुए ग़रीब सँभाले कहाँ गए
मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी
अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं
पी लेंगे ज़रा शैख़ तो कुछ गर्म रहेंगे
ठंडा न कहीं कर दें ये जन्नत की हवाएँ
हज्व ने तो तिरा ऐ शैख़ भरम खोल दिया
तू तो मस्जिद में है निय्यत तिरी मय-ख़ाने में
कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
टट्टी की आड़ में है मज़ा कुछ शिकार का
पहले हम को बहन कहा अब फ़िक्र हमीं से शादी की
ये भी न सोचा बहन से शादी कर के क्या कहलाएँगे
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ख़ुद तीस का है और दुल्हन साठ बरस की
गिरती हुई दीवार के साए में खड़ा है
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वहाँ जो लोग अनाड़ी हैं वक़्त काटते हैं
यहाँ भी कुछ मुतशायर दिमाग़ चाटते हैं
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ये रिश्वत के हैं पैसे दिन में कैसे लूँ मुसलमाँ हूँ
मैं ले सकता नहीं सर अपने ये इल्ज़ाम रोज़े में
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जो चाहता है कि बन जाए वो बड़ा शायर
वो जा के दोस्ती गाँठे किसी मुदीर के साथ
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मुमकिन है कि हो जाए नशा इस से ज़रा सा
फिर आप का चालान भी हो सकता है इस से
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अपने उस्ताद के शे'रों का तिया पाँचा किया
ऐ रहीम आप के फ़न में ये कमाल अच्छा है
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मैं ने हर फ़ाइल की दुमची पर ये मिसरा' लिख दिया
काम हो सकता नहीं सरकार मैं रोज़े से हूँ
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आ के बज़्म-ए-शेर में शर्त-ए-वफ़ा पूरी तो कर
जितना खाना खा गया है उतनी मज़दूरी तो कर
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दिया है नाम कफ़न-चोर जब से तुम ने मुझे
पुरानी क़ब्रों के मुर्दे मिरी तलाश में हैं
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सुना ये है कि वो सूफ़ी भी था वली भी था
अब इस के बा'द तो पैग़म्बरी का दर्जा है
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जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
घोड़ों की तरह बिकते हैं इंसान वग़ैरा
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है अजब निज़ाम ज़कात का मिरे मुल्क में मिरे देस में
इसे काटता कोई और है इसे बाँटता कोई और है
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हर वरक़ पर है छपी ग़ैर-मोहज़्ज़ब तस्वीर
कितने बेहूदा रिसाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
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इधर कोने में जो इक मज्लिस-ए-बेदार बैठी है
किराए पर इलेक्शन के लिए तय्यार बैठी है
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न हराम अच्छा है यारो न हलाल अच्छा है
खा के पच जाए जो हम को वही माल अच्छा है
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न छेड़ ऐ शैख़ हम यूँही भले चल राह लग अपनी
तुझे तो बीवियाँ सूझी हैं हम बेज़ार बैठे हैं
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मैं उन का माल ग़बन करके जब से बैठा हूँ
यतीम-ख़ाने के लौंडे मिरी तलाश में हैं
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यानी इक काला न जिस गोरे के मुक्के से मरे
कर नहीं सकता हुकूमत हिन्द पर वो ज़ीनहार
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आई सदा-ए-हक़ कि यही बंद-ओ-बस्त हैं
तेरे वतन के लोग तो मुर्दा-परस्त हैं
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सियासत में ऐसी उछल-कूद है
कि हर एक नेता मदारी लगे
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जो बैठा है बगुला भगत की तरह
वही हम को असली शिकारी लगे
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कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे
मगर उन का कहा या आप समझें या ख़ुदा समझे
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