त'अल्लुक़ात के तोहफ़े सँभाल कर रखना

त'अल्लुक़ात के तोहफ़े सँभाल कर रखना
अब्दुल हक़ सहर मुज़फ़्फ़रनगरी
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त'अल्लुक़ात के तोहफ़े सँभाल कर रखना
मिले हैं ज़ख़्म जो गहरे सँभाल कर रखना
सुकून देते हैं तन्हाइयों के मौसम में
तमाम दर्द के रिश्ते सँभाल कर रखना
कोई न क़द्र करे इस का ग़म न करना कभी
दिलों में प्यार के जज़्बे सँभाल कर रखना
महकते लम्हों का एहसास होगा आँगन में
शगुफ़्ता फूलों के गमले सँभाल कर रखना
वबाल-ए-जाँ न कहीं ग़फ़लतों से बन जाएँ
जदीद दौर के बच्चे सँभाल कर रखना
कभी लिबास-ए-हक़ीक़त पहन भी सकते हैं
तुम अपनी आँखों में सपने सँभाल कर रखना
ज़रा सी देर में बाज़ी पलट भी सकती है
दिलों के खेल में मोहरे सँभाल कर रखना
तुम्हारे हाथ में होंगे तो चल भी जाएँगे
पुराने दौर के सिक्के सँभाल कर रखना
निचोड़ कर जो रगों से मैं दे रहा हूँ तुम्हें
मिरे लहू के वो क़तरे सँभाल कर रखना
हमारी याद में निकला हुआ हर इक आँसू
कि जैसे मोती हो ऐसे सँभाल कर रखना
यक़ीन जानिए तहज़ीब की ज़मानत हैं
'सहर' ने जो कहे जुमले सँभाल कर रखना
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