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एक आरज़ू

MORE BYख़ालिद मुबश्शिर

    हुज़ूर मेरी बिसात क्या है कि ना'त लिक्खूँ

    मैं आप का इक बहुत गुनहगार उम्मती हूँ

    मिरी ज़बाँ पर कसाफ़तें हैं

    दिमाग़-ओ-दिल में ग़लाज़तें हैं

    हुज़ूर मेरी बिसात क्या है कि ना'त लिक्खूँ

    मगर नहीं मैं बहुत ही 'आली हसब नसब हूँ

    कि आप ही का ग़ुलाम-ए-इब्न-ए-ग़ुलाम-ए-इब्न-ए-ग़ुलाम हूँ मैं

    भला बताएँ कि मेरे आगे तमाम शाहान-ए-अज़मिना की बिसात क्या है

    हुज़ूर ये इक़्तिदार-ज़ादे हवस के बंदे

    मैं इन के शजरे से बा-ख़बर हूँ कि ख़्वाहिशों के ग़ुलाम-ए-इब्न-ए-ग़ुलाम-ए-इब्न-ए-ग़ुलाम हैं ये

    हुज़ूर मैं इन ग़ुलाम-ज़ादों के तख़्त-ओ-ताज और सल्तनत के सभी तिलिस्मात जानता हूँ

    मैं इन की औक़ात जानता हूँ

    तमाम फ़िर'औनियत के क़िल’ओं की और फ़सीलों की अस्ल बुनियाद इब्न-ए-आदम के ख़ून और हड्डियों से ता'मीर की गई है

    मगर हुज़ूर आप की हुकूमत तमाम शाहों से मुख़्तलिफ़ है

    कि आप के पास एक चादर है एक तह-बंद इक 'अमामा

    खजूर की छाल और पत्तों का एक बिस्तर

    सो ज़माने के बादशाहो

    लो तुम भी देखो ये शाह-ए-कौनैन का असासा

    मैं इस ज़माने के सारे नमरूद और शद्दाद और क़ारून और हामान और फ़िर'औन को दिखा दूँ

    कि मेरे आक़ा की सल्तनत में कोई नहीं है जो भूक से बिलबिला रहा हो

    हुज़ूर की मम्लिकत में दौलत का एक हिस्सा ग़रीब लोगों की मिलकियत है

    सुनो रफ़ीक़ान-ए-इश्तिराकी

    तमाम जब्र-ए-म’आश का बस यही निज़ाम-ए-ज़कात हल है

    दलित की महरूमियों पे आँसू बहाने वालो

    सुनो ये तारीख़ कह रही है

    बिलाल जैसे ग़ुलाम जिन को महा-दलित से भी पस्त समझा गया 'अरब में

    रसूल-ए-रहमत ने ऐसे महरूम आदमी को भी ऐसा दर्जा 'अता किया है

    ख़लीफ़ा-ए-वक़्त का भी आक़ा बना दिया है

    सुनो तानीसयत के ना'रे लगाने वालो

    रसूल-ए-इंसानियत ने मज़लूम 'औरतों को हयात बख़्शी

    रुसूम-ए-वहशत के ख़ूनी पंजों से उन को राह-ए-नजात बख़्शी

    तमाम 'इज़्ज़त वक़ार की काएनात बख़्शी

    हुज़ूर क्या है बिसात मेरी कि ना'त लिक्खूँ

    मगर मैं दुनिया के हिटलरों की समा'अतों को जगा रहा हूँ

    तमाम दहशत-पसंद लोगों को आज मैं ये सुना रहा हूँ

    तमाम इंसानियत के क़ातिल गिरोहों को ये बता रहा हूँ

    रसूल-ए-रहमत की ज़िंदगी का ये बाब रौशन दिखा रहा हूँ

    मैं आज ताएफ़ हुदैबिया और फ़त्ह-ए-मक्का की याद उन को दिला रहा हूँ

    हुज़ूर मेरी बिसात क्या है कि ना'त लिक्खूँ

    मगर मिरी एक आरज़ू है कि अपने ख़ून-ए-जिगर से औराक़-ए-ज़िंदगी पर बस आप ही की सिफ़ात लिक्खूँ

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