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नज़्म
मुफ़्लिसी
मुँह ख़ुश्क दाँत ज़र्द बदन पर जमा है मैल
सब शक्ल क़ैदियों की बनाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
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नज़्म
शाम-ए-अयादत
अभी तो दाँत पीसती है मौत शहरयारों की
अभी तो ख़ूँ उतर रहा है आँखों में सितारों की
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
क्या अजब ख़्वान-ए-मुक़द्दर ही उठा कर फेंके
डाँट कर ख़्वान-ए-मुक़द्दर से उठाया हुआ शख़्स