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ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
'ज़फ़र' वो ज़ाहिद-ए-बेदर्द की हू-हक़ से बेहतर है
करे गर रिंद दर्द-ए-दिल से हाव-हु-ए-मस्ताना
बहादुर शाह ज़फ़र
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नज़्म
इस्राफ़ील की मौत
थी इसी के दम से दरवेशों की सारी हाव-हू
अहल-ए-दिल की अहल-ए-दिल से गुफ़्तुगू
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
किरन सूरज की कहती है फिर आएगी शब-ए-हिज्राँ
सहर होती है 'अख़्तर' सो रहो ये हाव-हू क्या है