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ग़ज़ल
ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
ताज-महल
सीना-ए-दहर के नासूर हैं कोहना नासूर
जज़्ब है उन में तिरे और मिरे अज्दाद का ख़ूँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
है शायद मुझ को सारी उम्र उस के सेहर में रहना
मगर मेरे ग़रीब अज्दाद ने भी कुछ किया होगा
जौन एलिया
नज़्म
चंद रोज़ और मिरी जान
और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
मौज़ू-ए-सुख़न
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़-आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी अज्दाद पे क्या गुज़री है?
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वालिदा मरहूमा की याद में
तर्बियत से तेरी में अंजुम का हम-क़िस्मत हुआ
घर मिरे अज्दाद का सरमाया-ए-इज़्ज़त हुआ
अल्लामा इक़बाल
तंज़-ओ-मज़ाह
ये हर इक सिम्त पुर-असरार अकड़ी दीवारें ये भी हैं ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे...
कन्हैया लाल कपूर
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (2)
ये सियह झोंपड़ा में जिस में पड़ा सोचता हूँ
मेरे अफ़्लास के रौंदे हुए अज्दाद की
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
मेरे अज्दाद ने सौंपी थी जो मुझ को 'रज़्मी'
नस्ल-ए-नौ को वो क़बा दे के चला जाऊँगा