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ग़ज़ल
बशीर बद्र
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नज़्म
शिकस्त-ए-तौबा
पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मिरी मजाल
दर-पर्दा चश्म-ए-यार की शह पा के पी गया
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मुझे गुफ़्तुगू से बढ़ कर ग़म-ए-इज़्न-ए-गुफ़्तुगू है
वही बात पूछते हैं जो न कह सकूँ दोबारा
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
ये क़त्ल-ए-आम और बे-इज़्न क़त्ल-ए-आम क्या कहिए
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता