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नज़्म
रक़ीब से!
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
तंज़-ओ-मज़ाह
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने क्या बने बात जहां बात बनाए न बने...