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ग़ज़ल
सौ ख़ौफ़ की हो जाए मगर रिन्द-ए-नज़रबाज़
दिल जल्वागह-ए-लानशफ़-ओ-शुफ़ नहीं करता
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
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ग़ज़ल
ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले