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नज़्म
मालूम नहीं क्यूँ
अब ख़ून के धब्बे हैं मुदीरों की क़बा पर
ख़ामा दम-ए-समसाम है मालूम नहीं क्यूँ
शोरिश काश्मीरी
ग़ज़ल
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
पहले इस में सर था ऐ समसाम इश्क़ और जान थी
क्यूँकि मिलता तुझ से आ अब हाथ ख़ाली हो गया
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
ख़ाना-ए-मक़्तल में होता है गुमाँ फ़िरदौस का
मोर बन कर जब दिखाती है तिरी समसाम रक़्स