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नज़्म
आज शब कोई नहीं है
आज शब दिल के क़रीं कोई नहीं है
आँख से दूर तिलिस्मात के दर वा हैं कई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
हम को रोना है तो रो लेंगे कहीं भी जा कर
हुस्न की बज़्म-ए-तिलिस्मात ज़रूरी तो नहीं
गोपाल कृष्णा शफ़क़
नज़्म
जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
बे-तलब पहले-पहल मर्हमत-ए-बोसा-ए-लब
जिस से खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर