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ग़ज़ल
पारा-ए-मुसहफ़-ए-दिल थे तिरे कूचे में पड़े
आते पाँव के तले शुक्र कि पाए तो सही
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
नज़्म
ख़ातून-ए-मशरिक़
मुसहफ़-ए-रू-ए-किताबी रू-कश-ए-नाज़-ए-गुलाब
और बन जाए ये नेमत दफ़्तर-ए-इल्म-ए-हिसाब
जोश मलीहाबादी
मर्सिया
हैं फ़र्द नज़ाकत में मगर देखे में ज़ौज
दो होंट हैं और प्यास की है चारों तरफ़ फ़ौज