aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "مکران"
अबरम पब्लिशर्स, मकरान
पर्काशक
कलीम क़ैसर बलरामपुरी
born.1958
लेखक
मिरान जी श्म्स-उल-उश्शाक़
1496 - 1557
ख़लील धनतेजवी
1935 - 2021
शायर
मीरान शाह जालंधरी
मिर्ज़ा गुल मोहम्मद नातिक़ मकरानी
वसी मकरानी वाजदी
मुंशी मक्खन लाल
मेहरान अमरोही
कलाकार
जनरल न्यूज़ पेपर व बुक एजेंसी, बल्लीमारान, दिल्ली
संपादक
अबुल हसन मकानदार मक़बूली
क़ाज़ी मीरान बख़्श क़र्शी
मेहरान शाह
Hakeem Mohammad Taqi Meeran Sahab
मेहरान राइटर्स कलचर गिल्ड, कराची
سندھ اور ملتان میں مسلمانوں کی ریاستیں تین سو برس تک قائم رہیں اور آخر سلطان محمود المتوفی ۴۲۱ھ۱۰۳ء کے ہاتھوں ان دونوں ریاستوں کاخاتمہ ہوا، ان ریاستوں کا مذہبی تعلق بغداد اور مصر سے تھا اور خراسان، عراق، یمن، ایران اور مصر سے یہاں آنے والے تاجروں او ر...
हुस्न को उस के नज़र लगती तो कैसे लगतीउस के इक गाल पे मकरान था अच्छा-ख़ासा
कहते हैं कि लैला का तअल्लुक़ था अरब सेये रंग तो अफ़्रीक़ा ओ मकरान में देखा
है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूदख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या
Tarikh-e-Khachcha-o-Makran
मिर्ज़ा मोहम्मद काज़िम बर्लास
Makran
जमील ज़ुबैरी
सफ़र-नामा / यात्रा-वृतांत
Baghair Naqshe Ka Makan
मुनव्वर राना
लेख
Iqbal Ka Tasavvur-e-Zaman-o-Makan
रज़ीउद्दीन सीदीक़ी
आलोचना
Makaan
पैग़ाम आफ़ाक़ी
नॉवेल / उपन्यास
Iqbal Ka Tassawur-e-Zaman-o-Makan
रज़ीउद्दीन
ख़ाली मकान
मोहम्मद अल्वी
काव्य संग्रह
Makan
कुल्लियात-ए-मीरान शाह
कुल्लियात
Maghz-e-Marghoob
तज़किरा
Mitti Ka Makan
शाहिद कबीर
Jauhar-e-Muazzam
मुंशी नवल किशोर के प्रकाशन
Pur Asrar Makan
ज़फ़र महमूद
Tooti Chhat Ka Makan
एम मोबीन
अफ़साना
न जाने कब तिरे दिल पर नई सी दस्तक होमकान ख़ाली हुआ है तो कोई आएगा
गली से कोई भी गुज़रे तो चौंक उठता हूँनए मकान में खिड़की नहीं बनाऊँगा
कुलवंत चिल्लाई, “मैं पूछती हूँ, वो है कौन?” ईशर सिंह के गले में आवाज़ रुँध गई, “बताता हूँ।” ये कह कर उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा और उस पर अपना जीता जीता ख़ून देख कर मुस्कुराया, “इंसान माँ या भी एक अजीब चीज़ है।”...
अब हमारा मकान किस का हैहम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं
मैं जब मकान के बाहर क़दम निकालता हूँअजब निगाह से मुझ को मकान देखता है
चुप चुप मकान रास्ते गुम-सुम निढाल वक़्तइस शहर के लिए कोई दीवाना चाहिए
मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर देमैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
सुल्ताना ने उनमें से पाँच आदमियों को अपना रेट दस रुपये बताया था मगर तअज्जुब की बात है कि उनमें से हर एक ने यही कहा, “भई हम तीन रुपये से एक कौड़ी ज़्यादा न देंगे।” न जाने क्या बात थी कि उनमें से हर एक ने उसे सिर्फ़ तीन...
हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआमगर सुना है अभी वो मकान बाक़ी है
वीराँ गली के मोड़ पे तन्हा सा इक शजरतन्हा शजर के साए में छोटा सा इक मकान
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