aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "گولا"
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
1784 - 1850
शायर
प्रेम शंकर गोयला फ़रहत
1926 - 1968
अवध गज़ट, गोलागंज
पर्काशक
गोया जहानाबादी
लेखक
गोरा पब्लिशर्स, लाहौर
गोशा-ए-अदब, लाहौर
गोशा-ए-अदब, बुरहानपुर
सय्यद ज़ामिन हुसैन गोया
नूर एण्ड संस, गोरदा सीवर
ओलीवर गोल्ड स्मिथ
वेंकट रमन गोड्डा
गोश-ए-अदब, लखनऊ
गोशा-ए-अदब, दिल्ली
जे. रोज़वेल गेला गर
ताहिर असलम गोरा
क्या रेनी ख़ंदक़ रन्द बड़े क्या ब्रिज कंगूरा अनमोलागढ़ कोट रहकला तोप क़िला क्या शीशा दारू और गोला
कभी कभी ज़्यादा दबाने पर ये गोलियां पिचक जातीं और उनके मुँह से लेसदार लुआब निकल आता। उसको देख कर उसका चेहरा कान की लवों तक सुर्ख़ हो जाता। वो समझता कि उससे कोई गुनाह सरज़द हो गया है।गुनाह और सवाब के मुतअल्लिक़ मोमिन का इल्म बहुत महदूद था। हर वो फ़ेअल जो एक इंसान दूसरे इंसानों के सामने न कर सकता हो, उसके ख़याल के मुताबिक़ गुनाह था। चुनांचे जब शर्म के मारे उसका चेहरा कान की लौ तक सुर्ख़ हो जाता तो वो झट से अपनी क़मीज़ के बटन बंद कर लेता कि आइन्दा ऐसी फ़ुज़ूल हरकत कभी नहीं करेगा। लेकिन इस अह्द के बावजूद दूसरे तीसरे रोज़ तख़लिए में वो फिर इस खेल में मशग़ूल हो जाता।
वो उनकी रोज़ाना नक़ल-ओ-हरकत से तंग आकर बोला, “अब्बा मुझे इन जहाज़ों से सख़्त ख़ौफ़ मालूम हो रहा है। आप इनके चलाने वालों से कह दें कि वो हमारे घर पर से न गुज़रा करें।”“खौफ़...! कहीं पागल तो नहीं हो गए ख़ालिद!”
चिरंजी की बीवी कुछ जवाब नहीं देती। वो फिर उससे सवाल करता है, “तुम ख़ामोश क्यों हो? झुमके पसंद नहीं आए।” चिरंजी की बीवी के होंट खुलते हैं। फीकी सी मुस्कुराहट के साथ कहती है, “क्यों नहीं आए। बहुत पसंद आए। क्या और ला दोगे मुझे?”
गीदड़ की मौत आती है तो शहर की तरफ़ दौड़ता है, हमारी जो शामत आई तो एक दिन अपने पड़ोसी लाला कृपा शंकर जी ब्रहम्चारी से बर-सबील-ए-तज़किरा कह बैठे कि “लाला जी इम्तिहान के दिन क़रीब आते जाते हैं । आप सहर ख़ेज़ हैं। ज़रा हमें भी सुबह जगा दिया कीजिए।”वो हज़रत भी मा’लूम होता है कि नफ़िलों के भूके बैठे थे। दूसरे दिन उठते ही उन्होने ईश्वर का नाम लेकर हमारे दरवाज़े पर मुक्का बाज़ी शुरू कर दी। कुछ देर तक तो हम समझे कि आ’लम-ए-ख़्वाब है। अभी से क्या फ़िक्र, जागेंगे तो लाहौल पढ़ लेंगे लेकिन यह गोला बारी लमहा-लमहा तेज़ होती गई और साहब जब कमरे की चौबी दीवारें लरज़ने लगीं, सुराही पर रखा हुआ गिलास जल तरंग की तरह बजने लगा और दीवार पर लटका हुआ कैलेन्डर पेंडुलम की तरह हिलने लगा तो बेदारी का क़ायल होना ही पड़ा। मगर अब दरवाज़ा है कि लगातार खटखटाया जा रहा है। मैं क्या मेरे आबा-व-अजदाद की रूहें और मेरी क़िस्मत-ए-ख़्वाबीदा तक जाग उठी होगी। बहुतेरा आवाज़ें देता हूँ।
तग़ाफ़ुल क्लासिकी उर्दू शायरी के माशूक़ के आचरण का ख़ास हिस्सा है । वो आशिक़ के विरह की पीड़ा से परीचित होता है । वो आशिक़ की आहों और विलापों को सुनता है । लेकिन इन सब से अपनी बे-ख़बरी का दिखावा करता है । माशूक़ का ये आचरण आशिक़ के दुख और तकलीफ़ को और बढ़ाता है । आशिक़ अपने माशूक़ के तग़ाफ़ुल की शिकायत भी करता है । लेकिन माशूक़ पर इस का कोई असर नहीं होता । यहाँ प्रस्तुत शायरी में आशिक़-ओ-माशूक़ के इस आचरण के अलग-अलग रंगों को पढ़िए और उर्दू शायरी के इश्क़-रंग का आनंद लीजिए ।
शायरी में ख़त का मज़मून आशिक़, माशूक़ और नामा-बर के दर्मियान की एक दिल-चस्प कहानी है। इस कहानी को शाइरों के तख़य्युल ने और ज़्यादा रंगा-रंग बना दिया है। अगर आपने ख़त को मौज़ू बनाने वाली शायरी नहीं पढ़ी तो गोया आप क्लासिकी शायरी के एक बहुत दिल-चस्प हिस्से से ना-आशना हैं। हम एक छोटा सा इन्तिख़ाब यहाँ पेश कर रहे हैं उसे पढ़िए और आम कीजिए।
हास्य और व्यंग्य असल में समाज की असमानताओं से फूटता है। अगर किसी समाज को सही ढंग से जानना हो तो उस समाज में लिखा गया हास्यात्मक, व्यंग्यात्मक साहित्य पढ़ना चाहिए। उर्दू में भी हास्यात्मक और व्यंग्यात्मक साहित्य की शानदार परंपरा रही है। मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी, पतरस बुख़ारी, रशीद अहमद सिद्दीक़ी और बेशुमार अदीबों ने बेहतरीन हास्यात्मक, व्यंग्यात्मक लेख लिखे हैं। रेख़्ता पर ये गोशा उर्दू में लिखे गए ख़ूबसूरत और मशहूर मज़ाहिया और तन्ज़िया लेखों से आबाद है। पढ़िए और ज़िंदगी को ख़ुशगवार बनाइऐ।
गोलाگولا
round ball, object
Goya
जौन एलिया
काव्य संग्रह
Aag Ka Gola
डी. एस. हेल्सी जूनियर
विज्ञान
Duniya Gol Hai
इब्न-ए-इंशा
गद्य/नस्र
Kulliyat-e-Bhai Nand Lal Goya
गंडा सिंह
Tashreehi Istilahat
हकीम मोहम्मद कबीरुद्दीन
अन्य
Gora
रबीन्द्र नाथ टैगोर
नॉवेल / उपन्यास
Lab-e-Goya
आग़ा बाबर
अफ़साना
Goya Dabistan Khul Gaya
चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी
पत्र
किश्वर नाहीद
कविता
Gosha-e-Aafiyat
प्रेमचंद
Bustan-e-Hikmat
दास्तान
Galla-e-Safoora
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
Intikhab-e-Bustan-e-Hikmat
हिकायात
गोल माल
शफ़ीक़ा फ़रहत
महिलाओं की रचनाएँ
उस दिन से राहताँ को मा'मूल हो गया था कि वो शाम को एक रोटी पर दाल तरकारी रखकर लाती और जब तक माई खाने से फ़ारिग़ न हो जाती, वहीं पर बैठी माई की बातें सुनती रहती। एक दिन माई ने कहा था, “मैं तो हर वक़्त तैयार रहती हूँ बेटी कि जाने कब ऊपर से बुलावा आ जाए। जिस दिन मैं सुब्ह को तुम्हारे घर लस्सी लेने न आई तो समझ लेना मैं चली गई। तब तुम आना और इधर वो चारप...
मैं घर वापस आया तो वो दरवाज़े से निकल रही थी, चेहरा बिल्कुल तपा हुआ था आँखें भी सुर्ख़ हो रही थीं, मैं चौंका और पूछा, “क्या बात है आलाँ? तुम रोती रही हो?”वो हँसने लगी और हंसी के वक़फ़े में बोली, “रोएं मेरे दुश्मन, मैं क्यों रोऊँ? मैं तो मिर्चें कूटती रही हूँ आरिफ़ मियाँ!”
“क्यों नहीं?”“ख़ुदा की क़सम खा कर कहो।”
आते ही आते उन्होंने ग़ालिब के मुताल्लिक़ दो-चार हैरत-अंगेज़ इन्किशाफ़ात के बाद मुझे फाँसने के लिए एक-आध हल्के-फुल्के सवालात कर दिए। अब मेरी हिमाक़त मुलाहिज़ा हो... कि दिल ही दिल में अपने आपको बहुत बड़ा ग़ालिब फ़हम समझता... मैंने उनको नरम चारा समझ कर उन पर दो-चार मुँह मार दिए या यूँ समझ लीजिए उनकी दुम पर पैर रख दिया यानी उनके सामने ग़ालिब को अपने मख़सूस ज़ाव...
फिर आज़ादी की रात आई। दीवाली पर भी ऐसा चिराग़ां नहीं होता क्योंकि दीवाली पर तो सिर्फ दीए जलते हैं। यहां घरों के घर जल रहे थे। दीवाली पर आतिश-बाज़ी होती है, पटाख़े फूटते हैं। यहां बम फट रहे थे और मशीन गनें चल रही थीं। अंग्रेज़ों के राज में एक पिस्तौल भी भूले से कहीं नहीं मिलता था और आज़ादी की रात ना जाने कहाँ से इतने सारे बम, हैंड ग्रेनेड मशीन गन, स्टेन ...
उसकी बग़ल में पान वाले की दुकान खुली थी। तेज़ रोशनी में उसकी छोटी सी दुकान का अस्बाब इस क़दर नुमायां हो रहा था कि बहुत सी चीज़ें नज़र नहीं आती थीं। बिजली के क़ुमक़ुमे के इर्दगिर्द मक्खियां इस अंदाज़ से उड़ रही थीं जैसे उनके पर बोझल हो रहे हैं। जावेद ने जब उनकी तरफ़ देखा तो उसकी उलझन में इज़ाफ़ा हो गया। वो नहीं चाहता था कि उसे कोई सुस्त रफ़्तार चीज़ नज़र आए। उसका कर गुज़रने का इरादा जो वो अपने घर से लेकर यहां आया था, इन मक्खियों के साथ साथ बार बार टकराया और वो उसके एहसास से इस क़दर परेशान हुआ कि एक हुल्लड़ सा उसके दिमाग़ में मच गया, “मैं डरता हूँ... मैं ख़ौफ़ खाता हूँ... इस लालटेन से मुझे डर लगता है... मेरे तमाम इरादे इसने तबाह कर दिए हैं... मैं डरपोक हूँ... मैं डरपोक हूँ... ला’नत हो मुझ पर।”
मौला का उठा हुआ हाथ साँप के फन की तरह लहरा गया और फिर एक दम जैसे उसके क़दमों में निहत्ते निकल आए। रँगे ने तेरे बाप को उधेड़ डाला है गंडासे से! उनकी माँ की आवाज़ ने उसका तआक़ुब किया! पड़ टूट गया। ढोल रुक गए। खिलाड़ी जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे। हुजूम में अफ़रातफ़री पैदा हुई और फिर भगदड़ मच गई। मौला के जिस्म का ताँबा गाँव की गलियों में कोन्दे बिखेरता उड़ा जा रहा था। बहुत पीछे उसका जोड़ी वाल ताजा अपने और मौला के कपड़ों की गठड़ी सीने से लगाए आ रहा था और फिर उसके पीछे एक ख़ौफ़ज़दा हुजूम था। जिस गाँव में किसी शख़्स को नंगे सिर फिरने का हौसला न हो सकता था वहाँ मौला सिर्फ़ एक गुलाबी लंगोट बाँधे पहनारियों की क़तारों, भेड़ों, बकरियों के रेवड़ों को चीरता हुआ लपका जा रहा था और जब वो रंगे की चौपाल के बिल्कुल सामने पहुँचा तो सामने एक और हुजूम में से पीर नूर शाह निकले और मौला को ललकार कर बोले, रुक जा मौले!
ایک دن یہ ہوا کہ میرے پڑھنے کی باری تھی۔ میں نے ایک شعر پڑھا، معلوم نہیں کہاں کے اعراب کہاں لگا گیا۔ مولوی صاحب نے کہا، کیا پڑھا؟ میں سمجھا کہ اعراب میں کہیں غلطی ضرور ہوئی۔ تمام اعراب بدل کر شعر موزوں کر دیا۔ انہوں نے پھر بڑے زور سے ’’ہوں‘‘ کی۔ ہم نے پھر اعراب بدل دیے۔ اس سے ان کو غصہ آ گیا، دانی! تم تو پڑھو۔ انہوں نے شعر کا گلا ہی گھونٹ دیا، خاص...
خیر ظرافت اس خاص غرض کے لئے یعنی ستر حال کے لئے اخفائے خیال کے لئے، ان کے ہاتھ میں ایک اچھے لفافہ کا، بڑے کار آمد آلہ کا کام دیتی تھی، جو کچھ اور جس کی نسبت چاہتے، اسی پردہ میں سنا جاتے۔ کچھ اکیلی سیاسیات پر موقوف نہیں، رند و پارسا، امیر و فقیر، عالم و عامی، انگریز و ہندوستانی، ہندو و مسلم، سنی و شیعہ، سب کی صحبت میں اور مسجد اور مندر، کالج اور اس...
“आपा, में शादी कर लूँ?” उसने बड़ी लजाजत से पूछा। गोया अगर मैंने इजाज़त ना दी तो वो कुँवारी अरमान भरी मर जायेगी।“मगर तुम्हारा शौहर?”
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