aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "जाएदाद"
अकबर अली ख़ाँ
1939 - 1997
लेखक
मौलवी मोहम्मद हुसैन
1856 - 1928
पीर ज़ादा सैयद ज़ाहिद अशरफ़ सज्जादह नशीन
पीर ज़ादा नासिर हुसैन
पर्काशक
मलिक जादा
रज़ा ज़ादा शफ़क़
सय्यद ज़ादा बशारत शिकवा कशमीरी
हुसैन सुल्तान ज़ादा
राय ज़ादा
सय्यद सरदार अहमद पीर-ज़ादा
संपादक
हमज़ा हकीम ज़ादा नियाज़ी
अली मोहम्मद बिन जान्दार
हसन तक़ी ज़ादा
शीरीं ज़ादा ख़द्द ख़ेल
इब्राहीम शक़ुर ज़ादा
उसी पे हो गया क़ुर्बान दो दिलों का मिलापवो जाएदाद का झगड़ा जो ख़ानदान में था
इंदू कुछ डर सी गई। ज़िंदगी में पहली बार किसी अजनबी ने उसका नाम इस अंदाज से पुकारा था और वह अजनबी किसी ख़ुदाई हक़ से रात के अंधेरे में आहिस्ता-आहिस्ता इस अकेली बे यार-व-मददगार औरत का अपना होता जा रहा था। इंदू ने पहली बार एक नज़र ऊपर देखते...
जिन लोगों का वाक़ई बहुत नुक़्सान हुआ था वो लोग गुम-सुम बैठे हुए थे। ख़ामोश, चुप-चाप। और जिसके पास कभी कुछ न हुआ था, वो अपनी लाखों की जाएदाद खोने का ग़म कर रहा था और दूसरों को अपनी फ़र्ज़ी इमारत के क़िस्से सुना-सुना कर मरऊब कर रहा था और...
अगर उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती। ये चार-सौ बीस लड़की जंग के ज़माने में फ़ौज में थी और ख़ुशवक़्त को बर्मा के महाज़ पर मिली थी। ख़ुशवक़्त ने जाने किस तरह उससे शादी का वा’दा कर लिया था। लेकिन मुझसे मिलने के बा'द अब वो उसकी अँगूठी...
ये कह कर सागर ने उसे मुँह बनाकर चिड़ा दिया और बाहर निकल गया। और वो सोचती और मुस्कुराती रह गई। लैबारेटरी से बाहर आकर सागर सोच में पड़ गया। ये सोच अचानक पैदा हुई और उसी दम उसका चेहरा मुरझा गया। उसके चेहरे पर एक ऐसी शदीद संजीदगी का...
महशर एक मज़हबी इस्तिलाह है ये तसव्वुर उस दिन के लिए इस्तेमाल होता है जब दुनिया फ़ना हो जाएगीगी और इन्सानों से उनके आमाल का हिसाब लिया जाएगा। मज़हबी रिवायात के मुताबिक़ ये एक सख़्त दिन होगा। एक हंगामा बर्पा होगा। लोग एक दूसरे से भाग रहे होंगे सबको अपनी अपनी पड़ी होगी। महशर का शेरी इस्तेमाल उस के इस मज़हबी सियाक़ में भी हुआ है और साथ ही माशूक़ के जल्वे से बर्पा होने वाले हंगामे के लिए भी। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
तोहफ़े पर ये शेरी इन्तिख़ाब आप के लिए हमारी तरफ़ से एक तोहफ़ा ही है। आप उसे पढ़िए और आम कीजिए। आम ज़िंदगी में तोहफ़े लेने और देने से रिश्ते पर्वान चढ़ते हैं, तअल्लुक़ात मज़बूत होते हैं और नए जज़्बों की आबियारी होती है। लेकिन आशिक़ और माशूक़ के दर्मियान तोहफ़े लेने और देने की सूरतों ही कुछ और हैं। हमारा ये शेरी इन्तिख़ाब आपको और भी कई दिल-चस्प जहतों तक ले जाएगा।
जाएदादجائیداد
property
तारीख़-ए-अदबियात-ए-ईरान
मीर की ग़ज़ल-गोई
राशिद आज़र
ग़ज़ल तन्क़ीद
सब रस का तन्क़ीदी जाएज़ा
मंज़र आज़मी
आलोचना
उर्दू सहाफ़त का जाएज़ा
अहमद इब्राहीम अल्वी
पत्रकारिता
उर्दू लुग़त नवेसी का तन्क़ीदी जाएज़ा
डॉ. मसऊद हाश्मी
शब्द-कोश
Shumara Number-044
जी. ए. स्योमिन
Sep 1979सोवियत जाएज़ा
सर सय्यद के मज़हबी तालीमी और सियासी अफ़्कार
शान मोहम्मद
इक़बाल की शख्सियत पर एतराज़ात का जाएज़ा
डॉ. अय्यूब साबिर
जोश मलीहाबादी
ख़लीक़ अंजुम
शायरी तन्क़ीद
आज़ादी के बाद देहली में उर्दू के अदबी रसाइल का तन्क़ीदी जाएज़ा
शोएब रज़ा ख़ान वारसी
शोध
उर्दू ड्रामे की तन्क़ीद का जाएज़ा
इब्राहीम युसूफ़
इक़बाल की फ़ारसी शायरी का तन्क़ीदी जाएज़ा
अब्दुश्शकूर अहसन
शेर-ए-इक़बाल
सय्यद आबिद अली आबिद
इक़बालियात तन्क़ीद
उर्दू और हिंदी के जदीद मुशतरक अाैज़ान
समीउल्लाह अशरफ़ी
भाषा
Tareekh Adabiyat-e-Iran
“हाँ। हाँ ज़रूर खैबा भाई…”, डॉक्टर आफ़ताब राय मूँढे पर से हट कर टहलते हुए तुलसी के चबूतरे के पास आ गए। सहंची में रंग-बिरंगी मूर्तियाँ और गोल पत्थर सालग-राम से लेकर बजरंग बली महराज तक सेंदूर से लिपी-पुती और गंगा जल से नहाई-धोई क़रीने से सजी थीं। हेम-किरन थीं...
परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िरशजर पे लिक्खा हुआ है शजर बराए-फ़रोख़्त
नसीहत की धुन में मिर्ज़ा ये भूल गए कि दुश्मनों की फेहरिस्त में इज़ाफ़ा करने में ख़ुद उन्होंने हमारा काफ़ी हाथ बटाया है। जिसका अंदाज़ा अगर आप को नहीं है तो आने वाले वाक़ियात से हो जाएगा। हमसे कुछ दूर पी.डब्ल्यु.डी. के एक नामी गिरामी ठेकेदार तीन कोठियों में रहते...
इस जगह पर तो महज़ मुमताज़ सग़ीर अहमद था। वो हँसी, वो शोर मचाने वाला, ख़ूबसूरत आँखों का मालिक, सब का चहेता बौबी तो कहीं और बहुत पीछे रह गया था। यहाँ पर सिर्फ़ मुमताज़ सग़ीर अहमद मौजूद था। उसने अपना नाम आहिस्ता से पुकारा। मुमताज़ सग़ीर अहमद कितना अ'जीब...
कामों में जहेज़ के कपड़ों की तैयारी भी तो शामिल थी, कनीज़ रातों को भी मशीन खटकटाती रहती। लचके, गोटे, सितारे और आईने टंकते रहते। बेगम सुस्ती से टाँगें फैला कर जमाही लेतीं और कह उठतीं, “देखें मेरी दोनों बच्चियों में से पहले किसका नसीबा खुलता है?”, और नसीबा खोलने...
माँगेगा जाएदाद में हिस्सा ये एक रोज़फ़िलहाल चाहे ले के खिलौने बहल गया
ये गिध नहीं ये मिरे ख़ानदान वाले हैंये मेरा गोश्त नहीं जाएदाद चाहते हैं
वो कैसे दादी-जान? छोटी चम्पा बोल उठी। सब ने डर कर दादी को देखा मगर दादी-जान को ग़ुस्सा नहीं आया और उन्होंने बड़े प्यार से चम्पा को देख कर कहा। ये क़िस्सा होगा 15 अप्रैल 1917 का जब महात्मा गांधी अंग्रेज़ों और मिल मालिकों के ज़रीया किसानों पर ढाए जा...
बद-शक्ल है ज़ईफ़ है दुल्हन तो क्या हुआलाखों की जाएदाद भी मेरी नज़र में है
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