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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
हैं फूलों की डाली पे बाँहें तुम्हारी
हैं ख़ामोश जादू निगाहें तुम्हारी
ताहिर फ़राज़
नज़्म
मता-ए-ग़ैर
ढूँडती रहती हैं तख़्ईल की बाँहें तुझ को
सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में
साहिर लुधियानवी
नज़्म
परछाइयाँ
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मिरी खुली हुई बाहोँ में झूल जाता है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी
तेरी बाँहें तिरा पहलू है अभी मेरे लिए
सब से बढ़ कर मिरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
परवीन शाकिर
नज़्म
लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी
बाँहें थीं मगर विसाल-ए-सामाँ!
सिमटी हुई उस के बाज़ुओं में