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ग़ज़ल
उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें
ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
मर्सिया
जौहर के दिखाने में ये शमशीर-ए-ख़ुदा है
और सर के कटाने में ये शाह-ए-शोहदा है
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
ग़ज़ल
मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ूमंदी
मक़ाम-ए-बंदगी दे कर न लूँ शान-ए-ख़ुदावंदी