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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
नज़्म
बंजारा-नामा
क्या रेनी ख़ंदक़ रन्द बड़े क्या ब्रिज कंगूरा अनमोला
गढ़ कोट रहकला तोप क़िला क्या शीशा दारू और गोला
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
आदमी-नामा
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी
अब्दाल, क़ुतुब ओ ग़ौस वली-आदमी हुए
नज़ीर अकबराबादी
शेर
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
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ग़ज़ल
कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैं ने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की