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ग़ज़ल
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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शेर
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
किसी को उदास देख कर
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
नजात जिन से मैं इक लहज़ा पा नहीं सकता