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नज़्म
आदमी-नामा
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी
अब्दाल, क़ुतुब ओ ग़ौस वली-आदमी हुए
नज़ीर अकबराबादी
शेर
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
हास्य
पहले पहले शौहर को हर मौसम भीगा लगता है
यूँ समझो बिल्ली के भागों टूटा छीका लगता है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
हास्य
मैं ने पूछा कि ये क्या हाल बना रखा है
न तो मेक-अप है न बालों को सजा रखा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
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हास्य
मेरी महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम
अपनी हल्की सी शराफ़त का इशारा दे दे
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
ग़ज़ल
लम्हों में ज़िंदगी का सफ़र यूँ गुज़र गया
साए में जैसे कोई मुसाफ़िर ठहर गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
हास्य
लिखाने नाम सच्चे आशिक़ों में जब भी हम निकले
इरादों में हमारे जाने कितने पेच-ओ-ख़म निकले
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
हास्य
किसी की ढल गई कैसी जवानी देखते जाओ
जो थीं बेगम वो हैं बच्चों की नानी देखते जाओ