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ग़ज़ल
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
हँसा था जिस क़दर कभी ज़ियादा उस से रो चुका
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
मख़मूर सईदी
ग़ज़ल
मुईन अहसन जज़्बी
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ग़ज़ल
नूह नारवी
शेर
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
ग़ज़ल कह लें तो जी का बोझ हल्का हो ही जाता है
शाज़ तमकनत
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-गुलशन-ए-मक़्तल नशात-ए-दीदा-ओ-दिल है
कि जाँ-परवर बहार-ए-सब्ज़ा-ए-शमशीर-ए-क़ातिल है
पंडित त्रिभुवननाथ ज़ुतशी ज़ार देहलवी
ग़ज़ल
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
ग़ज़ल कह लें तो जी का बोझ हल्का हो ही जाता है
शाज़ तमकनत
ग़ज़ल
बज़्म-ए-नशात-ओ-ऐश का सामाँ लिए हुए
आई सबा बहार-ए-गुलिस्ताँ लिए हुए