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चाक
चाक शायरी
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ग़ज़ल
झूम के फिर चलीं हवाएँ वज्द में आईं फिर फ़ज़ाएँ
फिर तिरी याद की घटाएँ सीनों पे छा के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
इबलीस की मजलिस-ए-शूरा
छा गई आशुफ़्ता हो कर वुसअ'त-ए-अफ़्लाक पर
जिस को नादानी से हम समझे थे इक मुश्त-ए-ग़ुबार
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
समुंदर का बुलावा
ये सरगोशियाँ कह रही हैं अब आओ कि बरसों से तुम को बुलाते बुलाते मिरे
दिल पे गहरी थकन छा रही है
मीराजी
नज़्म
शिकस्त-ए-तौबा
उस जान-ए-मय-कदा की क़सम बारहा 'जिगर'
कुल आलम-ए-बसीत पे मैं छा के पी गया
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
नज़्र-ए-दिल
तुम कि बन सकती हो हर महफ़िल में फ़िरदौस-ए-नज़र
मुझ को ये दावा कि हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं