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मर्सिया
कौन होगा मर्द-ए-मैदाँ अब मसाफ़-ए-दहर का
हाथ में किस के चला है गो वो चौगां छोड़ कर
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
ग़ज़ल
सवार-ए-तौसन-ए-मअ'नी हूँ चौगान-ए-तबीअत सीं
लिया हूँ गू-ए-मैदान-ए-सुख़न में हम रदीफ़ों सीं
सिराज औरंगाबादी
कुल्लियात
वज़्अ यकसाँ इस ज़माने में नहीं रहती कहीं
क़द तिरा चौगाँ रहा है किस तरह से ख़म हनूज़
मीर तक़ी मीर
नज़्म
माह-ए-मुनीर
ज़मीं आतिशीं गोया चौगां ख़ला में लुढ़कती हुई
यूँ ही बे-मुद्दआ रक़्स करती हुई
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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ग़ज़ल
ख़्वाह लाठियों सीं मारो ख़्वाह ख़ाक में लथाड़ो
'आशिक़ का दिल पियारे चौगान का बटा है
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
ऐ दिल अब इश्क़ की लै-गोई और चौगान में आ
बे-ख़तर ठोक के ख़म जंग के सामान में आ
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
कुल्लियात
अपना सर-ए-शोरीदा तो वक़्फ़-ए-ख़म-ए-चौगान है
आ बुल-हवस गर ज़ौक़ है ये गो है ये मैदान है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
काम हुए हैं सारे ज़ाएअ' हर साअ'त की समाजत से
इस्तिग़्ना की चौगुनी उन ने जूँ जूँ मैं इबराम किया
मीर तक़ी मीर
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
ये क़ुलक़ुल तीसरा पैग अब तो चौथा हो गुमाँ ये है
गुमाँ का मुझ से कोई ख़ास रिश्ता हो गुमाँ ये है