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ग़ज़ल
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यूँ दरेग़
रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर नहीं हूँ मैं
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
हिण्डोला
नदीम जैसे निगल ली हो मैं ने नाग-फनी
ज़ इश्क़-ज़ादम ओ इशक़म कमुश्त ज़ार-ओ-दरेग़
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है
क्यूँ मुझ को ज़ौक़-ए-लज्ज़त-ए-दुश्नाम हो गया
इस्माइल मेरठी
नज़्म
दरबार1911
बहर-ए-हस्ती ले रहा था बे-दरेग़ अंगड़ाइयाँ
थेम्स की अमवाज जमुना से हुई थीं हम-कनार
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जान भी चीज़ है कोई कि रखें तुम से दरेग़
पास इतना भी न हो रस्म-ए-वफ़ादारी का
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
की थी जो मैं मुरक़्क़ा-ए-आलम से इंतिख़ाब
ऐ 'मुसहफ़ी' दरेग़ वो तस्वीर क्या हुई