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ग़ज़ल
ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मोहब्बत की नहीं मिलती लाश
वर्ना डूबा हुआ निकले है सुना तीसरे दिन
नज़ीर अकबराबादी
शेर
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
रुबअ मस्कों में कुछ आबादी है कुछ वीराना है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
याँ नूह की कश्ती को भी तूफ़ान का डर है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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शेर
हवस हम पार होएँ क्यूँकि दरिया-ए-मोहब्बत से
क़ज़ा ने बादबान-ए-कशती-ए-तदबीर को तोड़ा
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
तह में दरिया-ए-मोहब्बत के थी क्या चीज़ 'अज़ीज़'
जो कोई डूब गया उस को उभरने न दिया
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
शोर-ए-दरिया-ए-वफ़ा इशरत-ए-साहिल के क़रीब
रुक गए अपने क़दम आए जो मंज़िल के क़रीब