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ग़ज़ल
क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो
कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
बीवियाँ
तुम पर हज़ार जान से क़ुर्बान मैं सनम
कुछ दिन के ब'अद कहती हैं शौहर को फिर ख़स्म
नश्तर अमरोहवी
कुल्लियात
क्यूँकर कहें कि शहर-ए-वफ़ा में जुनूँ नहीं
उस ख़स्म-ए-जाँ के सारे दिवाने हैं याँ के लोग
मीर तक़ी मीर
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ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
कुल्लियात
अब हम फ़क़ीर जी से दिल को उठा के बैठे
उस ख़स्म-ए-जाँ के दर पर तकिया बना के बैठे
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
हालाँकि ख़स्म-ए-जान हैं पर देखिए जो ख़ूब
हैं आरज़ू दिलों की भी ये मुद्दआ हैं ये
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
है बहार-ए-रंग-ओ-बू-ए-ताज़ा रू-ए-ख़स्म-ए-जाँ
सालिम आफ़ात-ए-हवादिस से गुल-ए-पज़मुर्दा है
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
ख़ार-ओ-ख़स महरम हैं पुर-फ़न गरचे हम रहे जूँ हुबाब
हम तिरे ऐ बहर-ए-हुस्न आख़िर हवा-दारों में थे