ग़ाफ़िल हैं ऐसे सोते हैं गोया जहाँ के लोग
ग़ाफ़िल हैं ऐसे सोते हैं गोया जहाँ के लोग
हालाँकि रफ़तनी हैं सब इस कारवाँ के लोग
मजनूँ-ओ-कोहकन न तलफ़ इश्क़ में हुए
मरने पे जी ही देते हैं इस ख़ानदाँ के लोग
क्यूँकर कहें कि शहर-ए-वफ़ा में जुनूँ नहीं
उस ख़स्म-ए-जाँ के सारे दिवाने हैं याँ के लोग
रौनक़ थी दिल में जब तईं बस्ते थे दिलबराँ
अब क्या रहा है उठ गए सब इस मकाँ के लोग
तू हम में और आप में मत दे किसू को दख़्ल
होते हैं फ़ित्ना-साज़ यही दरमियाँ के लोग
मरते हैं उस के वास्ते यूँ तो बहुत वले
कम-आश्ना हैं तौर से उस काम-ए-जाँ के लोग
पत्ती को इस चमन की नहीं देखते हैं गर्म
जो महरम-ए-रविश हैं कुछ उस बद-गुमाँ के लोग
बुत चीज़ क्या कि जिस को ख़ुदा मानते हैं सब
ख़ुश-ए'तिक़ाद कितने हैं हिन्दोस्ताँ के लोग
फ़िरदौस को भी आँख उठा देखते नहीं
किस दर्जा सैर-चश्म हैं कू-ए-बुताँ के लोग
क्या सहल जी से हाथ उठा बैठते हैं हाए
ये इश्क़-पेशगाँ हैं इलाही कहाँ के लोग
मुँह तकते ही रहे हैं सदा मजलिसों के बीच
गोया कि 'मीर' महव हैं मेरी ज़बाँ के लोग
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0846
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