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ग़ज़ल
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
ऐश जितने हैं इसी कुंज-ए-कम-आसार में हैं
अरशद अब्दुल हमीद
शेर
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
ऐश जितने हैं इसी कुंज-ए-कम-आसार में हैं
अरशद अब्दुल हमीद
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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
शिकवा
ऐ ख़ुदा शिकवा-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं
उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
शेर
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
इतना मालूम है!
मैं यहाँ हूँ मगर उस कूचा-ए-रंग-ओ-बू में
रोज़ की तरह से वो आज भी आया होगा
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
ख़ोशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाए