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नज़्म
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़रहान सालिम
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
हास्य
क्या क्या नहीं था अपनी तवाज़ो' में उन के घर
छोले मटर वो आलू-बुख़ारा कि हाए हाए
मसरूर शाहजहाँपुरी
नज़्म
रज़िया-सुल्ताना कोरंगी, ''के'' एरिया
नमक मिर्च आलू मटर प्याज़ लहसन चुक़ंदर टमाटर
पोदीना, कढ़ी पात ज़ीरा, मसाले,
हारिस ख़लीक़
नज़्म
हम को देखे जो आँख वाला हो
सख़्त सूखी हुई मटर की तरह
किसी माशूक़ की कमर की तरह
मोहम्मद यूसुफ़ पापा
ग़ज़ल
तक़दीर ही कुछ अपनी मटर-गश्त किए है
'तमजीद' ये मुमकिन है महालात बता दूँ