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हास्य
हस्ब-ए-ख़्वाहिश गर बदल मुझ को अता कर दें जनाब
क्या अजब पेश-ए-ख़ुदा माजूर भी हूँ और मसाब
ज़रीफ़ लखनवी
नज़्म
रक़ीब से!
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
यही मस्लक है मिरा, और यही मेरा मक़ाम
आज तक ख़्वाहिश-ए-मंसब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
नज़्म
किसी को उदास देख कर
मैं ख़ुद को मौत के हाथों में सौंप सकता हूँ
मगर ये बार-ए-मसाइब उठा नहीं सकता
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियाँ
न चमन में फेंक देना किसी फूल को मसल कर