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नज़्म
ख़ून फिर ख़ून है
ख़ून फिर ख़ून है सौ शक्ल बदल सकता है
ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाए न बने
साहिर लुधियानवी
नज़्म
किस से मोहब्बत है
मिरे चेहरे पे जब भी फ़िक्र के आसार पाए हैं
मुझे तस्कीन दी है मेरे अंदेशे मिटाए हैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
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ग़ज़ल
मिटाए दीदा-ओ-दिल दोनों मेरे अश्क-ए-ख़ूनीं ने
'अजब ये तिफ़्ल अबतर था न घर रक्खा न दर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मिटते हुओं को देख के क्यूँ रो न दें 'मजाज़'
आख़िर किसी के हम भी मिटाए हुए तो हैं