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ग़ज़ल
मुझे दुख फिर दिया तू ने मुँडा कर सब्ज़ा-ए-ख़त को
जराहत को मिरे वो मरहम-ए-ज़ंगार बेहतर था
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
हास्य
यही अच्छा हुआ तू ने जो ज़ुल्फ़ों को मुँडा डाला
नहीं तो तेरे दीवानों की हालत और हो जाती
बूम मेरठी
कुल्लियात
सब ताइर-ए-क़ुदसी हैं ये जो ज़ेर-ए-फ़लक हैं
मूँदा है कहाँ इश्क़ ने इन जानवरों को
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
बाल तेरे सर के आगे तो जियों के हैं वबाल
सर मुँडा कर हम भी होते हैं क़लंदर हो सो हो