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ग़ज़ल
हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो
बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था
हबीब जालिब
शेर
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
नज़्म
ख़ुदा का सवाल
तू मेराज-ए-फ़न तू ही फ़न का सिंघार
मुसव्विर हूँ मैं तू मिरा शाहकार