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ग़ज़ल
अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ुन-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
वालिदा मरहूमा की याद में
जिस की नादानी सदाक़त के लिए बेताब है
जिस का नाख़ुन साज़-ए-हस्ती के लिए मिज़राब है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुफ़्लिसी
हाँ नाख़ुन और बाल बढ़ाती है मुफ़्लिसी
जब मुफ़्लिसी हुई तो शराफ़त कहाँ रही
नज़ीर अकबराबादी
शेर
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ख़ूँ है दिल ख़ाक में अहवाल-ए-बुताँ पर या'नी
उन के नाख़ुन हुए मुहताज-ए-हिना मेरे बा'द